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डर / अरविन्द भारती
Kavita Kosh से
मुझे सिखाया गया
गुरु ईश्वर से बड़ा
फिर पढ़ाया गया
एकलव्य का पाठ
मेरे इर्दगिर्द अर्जुन थे कई
गुरु द्रोणाचार्य से महान
मै छोटा था बहुत
डर मेरे स्मृतिपटल पर
अंकित हो गया
मैंने अर्जुन को
कभी चुनौती नहीं दी
मेरा अंगूठा सलामत रहा
मैंने संकल्प लिया
गुरु बनूंगा द्रोणाचार्य नही
फिर शम्बूक वध पढ़ा
एक कायर मेरे भीतर
जड़ जमा चुका था
मेरे साथी दिजों के
षड्यंत्र का शिकार हो गए
मै तमाशाई बना देखता रहा
राम नंगी तलवार लिए
मेरी तरफ बढ़ रहे है
दिजों ने चारों तरफ से
मुझे घेर लिया है
मै छटपटा रहा हूँ
पसीना पसीना हो गया हूँ
एक चीख के साथ
मेरी नींद टूट जाती है
मै डर से थरथर कांप रहा हूँ।