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डर / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
वो रातों को डर कर उठना
घबराना
और फिर टूटे सपनो की बागडोर थामे
फिर से सोने की कोशिश करना
आँखे मूँदे जबरन
फिर करवट बदलना
इस आस में के नींद मिलेगी दूसरे छोर
कुछ सुकून मिलेगा दिल को उस ओर
पर वक़्त के मारों को
ख़्वाब भी कहाँ पूरे मिलते हैं?
रात तो क्या
हम दिन भी डर के साये में गुजारते हैं।