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डर / मनोज कुमार झा

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यह एक कथा है- यह मैं भूल जाता था, अन्य दर्शक भी भूल जाते थे
इस दृश्य को बहुत अधिक
खींच दिया गया था
सब्ज़ी ख़रीदने बाज़ार आई लड़की के पीछे
चार-पाँच शोहदे लग गए थे
ये एक बड़े गुंडे के लड़के थे

लड़की भागती जा रही थी-शॉपिंग मॉल, पुराना चर्च,
नय चमकता मंदिर, मिठाई वाली गली-सब कुछ के पास से
गुज़रती लड़की भागती जा रही थी

बगल में नया जोड़ा बैठा था- युवती दुनिया की तरफ़
थोड़ी कम खुली हुई निश्चिंत कि उसके जीवन में
नहीं होगा ऐसा कुछ-युवक के कन्धे पर झुकी हुई थी
फिर लड़की गिर पड़ी-एक वृद्धा ने ओह कहा और फिर
तीन चार वृद्धाएँ
जो शायद बचपन की सहेलियाँ थीं
उस दृश्य को वहीं पर्दे पर छोड़
धीमे-धीमे कोई लोकगीत
गाने लगीं

फिर लड़कों ने सीटियाँ बजानी शुरू की
और ठहाके उठने लगे
सीटियाँ, ठहाके और ठहाके
उमस के रोऐं कड़े हो गए, अन्धेरे का पानी सूख गया
और लगा बल्ब जला दे कोई-चुप रहा, बहुमत इसके ख़िलाफ़ था

इतना डर कभी नहीं लगा था इस शहर में
वृद्धाओं का चेहरा घूमा द्वार की तरफ़
मगर शोर ने कस दिया था घेरा
मेरी टाँगों में बचा था थोड़ा बल
तड़फड़ बाहर निकला, नया जोड़ा भी
हाथ में हाथ डाले सटे हुए
हाँफते बेटी को फ़ोन किया-
वो घर में माँ से कोई कहानी सुन रही थी
फिर लौटा, नया जोड़ा भी-
अब तक हीरो आ गया होगा