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डर / स्मिता झा

मैं डरती क्यों हूँ...?
अक्सर सोचा है मैंने...
और तय किया है,
डर से बाहर हो जाऊँगी एक दिन...

वो दिन आता नहीं कभी
और हर दिन
एक नामालूम-सा डर मुझे घेरे रहता है...
कहीं भी कभी भी
हाट में, बाजार में
बगीचे में भी
ट्रेन में, बस में
रिक्शे में भी
स्कूल में, कॉलेज में
ऑफिस में भी

इसके घर, उसके घर
अपने घर में भी,
डरना नहीं,
नहीं डरना
पर, डर से बचना
कितना मुश्किल

उस डर...से
जो स्त्री की पैदाइश से मृत्यु तक
हावी रहता है कहीं न कहीं...।