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डाकिए-सी... साँझ / सरोज परमार
Kavita Kosh से
घिरी आती है साँझ
इसे रोको! रोको! इसे रोक भी दो।
यह दे भी जाएगी एक चिट्ठी
गुमनाम सी
जो खा जाएगी मेरी नींद
आज के सपने
जो कर जाएगी कड़वी मेरी बात
मेरे घर न आए यह साँझ
कह दो ! इससे, कह दो।
यादों की भट्ठी में,पिघलते राँगे सी देह
होठों की चिमनी से
धूआँ उगलेगी।
जिससे मेरे अस्तित्व का आकाश
काला हो जाएगा
तब मेरी प्यासी आत्मा को
दो शब्दों का पानी न मिलेगा।
रोको ! इसे रोको ।
यह अवाँछित डाकिये सी.....साँझ