डाकिया / फ़रीद खान
चिलकती धूप में एक डाकिया एक घर की चौखट पर बैठा सुस्ता रहा था ।
यह दृश्य उससे बिल्कुल अलग था,
कहानियों, कविताओं में जो पढ़ा था या सुना था ।
अन्दर से पानी का एक लोटा आया ।
उसने चेहरे पर पानी मार कर कुछ पिया ।
उसके बाद भी वह बैठा रहा काफ़ी देर ।
काफ़ी देर बाद मैं फिर गुज़रा उधर से ।
तो वह जा चुका था ।
हालाँकि वह उसके बैठने की जगह नहीं थी,
फिर भी लग रहा है,
कि वह अपनी ही जगह से उठ कर गया है ।
उस ख़ाली हुई जगह में डाकिया ही दिख रहा था ।
ऐसा नहीं होता शायद, अगर उस घर का कोई फ़र्द
या कोई और राहगीर उस चौखट पर आकर बैठ जाता ।
ख़ाली हुई जगह पर दिखता रहा डाकिया,
जब तक मैं देखता रहा उस जगह को ।
जिस रास्ते से वह गया,
(एक ही रास्ता है यहाँ जाने के लिए)
उस ख़ाली और सुनसान रास्ते पर भी वही दिख रहा था और कोई नहीं ।
चिलकती धूप, कच्ची सड़क, गर्म धूल और वह ।
अब तक न जाने कितने लोग बैठ गए उस चौखट पर,
लेकिन मेरे लिए वह चौखट डाकिए की स्मृति की वजह बन गई ।
घाव के निशान कभी नहीं मिटते हैं जैसे, भर जाते हैं लेकिन ।