डाक्टर के प्रति / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
तुम सर्वभूतहित की इच्छा के कीर्त्ति-स्तूप,
परिवर्त्तनीय विज्ञान-शक्ति के शिव स्वरूप।
तुम चिन्ताकुल म्रियमाण प्राण के संजीवन,
पीड़ित जन-मन के नींद मधुर, चिर अवलम्बन।
तुम शीतल छाया-वट-से दुख हरने आए,
ले धन्वन्तरि से अमृत-कलश जग मंे आए।
अति पाशवीय पर आज तुम्हारा दृष्टिकोण,
भौतिक मानों से मर्यादित हैं, श्रेय जो न।
दे नहीं सके तुम दीनों को अमरत्व-दान
कर सके नहीं मिट्टी के पुतले प्राणवान।
है विभवहीन के लिए न तेरा खुला द्वार,
तुम विभववान श्रीमानों के ही प्रति उदार।
क्यूँ नहीं हुआ स्वल्पत्व तुम्हारा मूल मन्त्र?
बहुलत्व तुम्हारे जीवन का ही नीति-तन्त्र।
तुम पर्णकुटीचर नहीं, महल तेरा निवास,
जो जन-मन का आतंक खड़ा गर्वित सहास।
तुम श्वान डुलाते पुच्छ, जहाँ धन सौध धाम!
निर्धन के राम मँडइयों से क्या तुम्हें काम?
तुम बने चिकित्सक, क्षुधा-काम से हो पीड़ित,
तुम बने चिकित्सक, धन-तृष्णा से हो मोहित।
तुम नहीं चिकित्सक, सहज भाव से उत्प्रेरित,
तुम नहीं चिकित्सक, सेवा-व्रत से प्रोत्साहित।
हो ध्येय तुम्हारा गंगा-जल-सा चिर पावन,
जो कामद, रविकर आलोकित कृति का कारण।
जो त्याग, दया, परदुखकातरता से मंडित,
पर गर्हित पद-पद कुत्सित पशुता से वंचित।
(रचना-काल: मार्च, 1945)