डूंगर पर / गोरधनसिंह शेखावत
सुनता रहा
इस डूंगर की गाथा
अनकही बातें
और सोचता रहा
तीखे सवालों के जबाब
सवाल
जो बहते
मेरी रग-रग में
रक्त की नदी बन कर
जो धाहड़ते
तोप के गोले के उनमान
आज मैं
डूंगर पर हूं
जमीन से ऊंचा
थोड़ा ऊंचा
धरती पर बहता है
गंदा पानी
तो यहां बहती है-
निर्मल धारा
यहां का चित्र
जमीन से एकदम अलग है
अच्छा और मनमोहक
डूंगर गूंजता है
नदी की कल-कल से
मुस्कुराते हैं-
वृक्षों के पत्ते-फूल ।
उजास के छींटों से
आच्छादित है डूंगर का सीना
पत्थर-पत्थर में
पहचाने जाते हैं अनेक चेहरे
फैलते हैं घाटियों में
इतिहास के नए संदर्भ के आखर
डूंगर की गोद में
चमकता है
जीवन-जिंदगी का अपनापन
रीतता है कठिन बातों का दर्द
चारों तरफ फैलती है
एकांत दुनिया की शांति
यहां नहीं है तोप
न ही है रक्त की नदी
है मेरे करीब
एक अपठित
पर्याप्त डूंगर !
अनुवाद : नीरज दइया