भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डूब गया दिन / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
डूब गया दिन नीले ताल में
और हम
पानी की पर्त-पर्त छीलकर
जाने क्या खोजते रहे ?
लौट गई हवा द्वार से
सन्नाटा सूँघ कर
फैल गई बदन भर घुटन
खूँद-खूँद कर
और हम सवेरे से शाम तक
जाने क्या सोचते रहे
जाने क्या खोजते रहे ?