ड्राईवर / सुदर्शन वशिष्ठ
एक
जाट आदमी होता है ड्राइवर
बात-बात में गाली निकालता
स्टेयरिंग पर बैठा हुआ दिखता है
होता नहीं वहाँ
घूमता है खेत खलिहान में
अनुपस्थिति में निहारता है
कुम्हलाई फसल
मेंढ़ पर हुआ कब्ज़ा नाजायज़
झगड़ता है औरत से
बच्चों को झिड़कता है
ब्रेक सा एकदम रोक देता है शोर शराबा
प्यार भी करता है
बोलता कुछ नहीं, हँसता है मूँछों में।
यह सब करता हुआ भी ड्राइवर
सामने आँखें फैलाये
काटता है मोड़
बताचा है सड़क में लँगड़ाती बुढ़िया को
फुदकती गिलहरी को
उछलते मेंढ़क को
करता है वह सब
जो करना चाहिये चौकन्ने चालक को
महसूस करता है
धरती के नीचे की आवाज़
टायर के नीचे आई चींटी
फिर भी
होता नहीं वहाँ।
ड्राइवर अपने शरीर से निकल
विचरता है कई जगह
स्थूल शरीर से काटता रहता मोड़
सूक्ष्म से झगड़ता औरत से
उस युग के शापित योगी
आज ड्राइवर हुए हैं।
दो
बार-बार बजाता हार्न पर हार्न
आगे जाते धुआँ उगलते ड्राइवर को
बीच सड़क में ब्रेक मार
मुँह भर कर देता है गाली
पास देने के लिए
मोर्चा बाँध खड़ा हो जाता
हटता नहीं पीछे सिपाही की तरह।
लम्बे सफर में माँ बहन की गाली देता
खिड़की से मुँह निकाल-निकाल
एक मुकाम पर
ढाबे के आगे बिछी मँजी पर बैठ
बतियाता है हँसता है गाता है
एक थाली में खाता है
पूछता है सुखसाँत गले में बाहें डाले
उससे
जिसे पास न देने पर टेप बँद कर
पकड़ लिया था कालर से और
नहीं छोड़ा था आगा पीछा।
तीन
ड्राइवर का सफर नही होता अपना सफर
जाना होता है उसे हर बार
घर की दिशा से विपरीत
फिर भी कम नहीं होती उसकी गति
मीलों सफर तय करता है
सालों की बातें सोचते हुए।
चार
मुस्तैदी से बैठा रहता है ड्राइवर
स्टेयरिंग सम्भाले
अफसर की इन्तजार में
हालाँकि बहुत कठिन है स्थिर जमे रहना
चलायमान गाड़ी में धैर्य से
अफसर कहाँ है उसे नहीं है सोचना-जानना
उसे है बस बैठना और भालना
अफसरह और मौत कब आ जाये
पता नहीं चलता।