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ढब्बू मियाँ / विनोद विट्ठल
Kavita Kosh से
यक़ीनन किसी मस्ज़िद के न रहने का ग़म नहीं था उन्हें
अपने अनपढ़पन का दुःख वे कातरता से देखते
एक शराबी और बेनमाज़ी की तक़रीर सुनते हुए
कितने अकेले थे ढब्बू मिंयाँ
वे अपनी दाढ़ी से मुसलमान
और कपड़ों से ग़रीब लगते थे
नस्ली तौर पर आदमी से कहीं ज़्यादा वे ढब्बू के क़रीब थे
इस बात से बेख़बर की ढब्बू होना कितना मुश्किल है
उनकी सबसे बड़ी चिन्ता
बच्चे के हाथ में ढब्बू का सलामत पहुँचना था
गोया कि वह धरती हो
बच्चे ढब्बू से खेलते दूसरे ग्रहों की ईर्ष्या बढ़ाते हुए
और ढब्बू मियाँ नए ढब्बू में फूलते !