भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढलानें / गोविन्द कुमार 'गुंजन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कभी
देखता हूँ पहाडों को
उनकी ढलानें डराती है मुझे

धीरे धीरे
सूरज चढ़ता है आसमान पर ष्
शाम को लुढ़कती है उसकी गेंद
गोल गोल घूमती हुई

मैं देखता हूँऊपर
और नीचे एक पत्थर ढुलक जाता है
पहुंच जाता है बहुत दूर

डगमगाते हैं पैर
लगता है अब गिरे, तब गिरे

यह गिरने का डर
संभाल लेता है हमें
मगर दूर तक जाने नहीं देता

मैं रखना चाहता हूँ
कुछ शब्दों की दीप
उस कागज की नाव में
जिसे ढलान से उतरती हुई नदी में
रखते हुए, सोचना चाहता हूँ, कि
यह उजाला पहुंच जाए
उन अंधेरी घांटियों में
जहाँ पत्थरों पर बन चुकी है
एक हरी - फिसलनी
जहाँ
मुश्किल से टिकते है आदमी के पाँव