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ढाढस / हरिऔध

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सभी दिन कभी एक से हैं न होते।
बहे हैं यहाँ साथ सुख दुख के सोते।
हँसे जो कभी थे वही ऊब रोते।
मिले मंगते मोतियों को पिरोते।

अभी आज जो राज को था चलाता।
वही कल पड़ा धूल में है दिखाता।
कभी फेर से है दिनों के न चारा।
सदा ही न चमका किसी का सितारा।

बिपद से न कोई सका कर किनारा।
कहाँ पर नहीं पाँव दुख ने पसारा।
हुई बेबसी दूर होनी टली कब।
भला भाग से है किसी की चली कब।

न हो जो कि बिगड़ा बना कौन ऐसा।
गिरा जो न होवे उठा कौन ऐसा।
न हो जो कि उतरा चढ़ा कौन ऐसा।
घटा जो न होवे बढ़ा कौन ऐसा।

सदा एक सा है किसी का न जाता।
यहाँ का यही ढंग ही है दिखाता।
चमकते दिनों बाद रातें अँधेरी।
घिरे बादलों बीच डूबी उँजेरी।

पड़ी कीच में फूलवाली चँगेरी।
दहकती हुई आग की राख ढेरी।
हमें है यही बात सब दिन बताती।
सदा ही घड़ी एक सी है न आती।

भला फिर कुदिन के लिए हम कहें क्या।
बुरी गत बिपत के लिए हम कहें क्या।
दरद औ दुखों के लिए हम कहें क्या।
गये छिन सुखों के लिए हम कहें क्या।

हमें है यही एक ही बात कहना।
भला है न मन मार कर बैठ रहना।
कभी अब नहीं दिन हमारे फिरेंगे।
न सँभलेंगे अब हम दिनों दिन गिरेंगे।

सदा पास बादल दुखों के घिरेंगे।
कभी अब न सागर बिपद का तिरेंगे।
सकेगा चमक अब न डूबा सितारा।
उबर अब सकेगा न बेड़ा हमारा।

समझ सोच यों सोच में डूब जाना।
गिरा हाथ और पाँव जीवट गँवाना।
न जी से उमगना न हिम्मत दिखाना।
अपाहिज बने काम से जी चुराना।

बुरा है, खनेंगे यही जड़ हमारी।
बिगड़ जायगी बन गई बात सारी।
अगर चाँद खो सब कला फिर पलेगा।
अगर बीज मिल धूल में बढ़ चलेगा।

अगर काटने बाद केला फलेगा।
अगर बुझ गये पर दिया फिर बलेगा।
भला तो न क्यों दिन फिरेंगे हमारे।
दमकते मिले जब कि डूबे सितारे।