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ढाबे वाला श्याम / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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काम काम काम
सुबह काम शाम काम दोपहर काम रात काम
पल भर का भी नहीं आराम काम काम बस काम

निस्तेज हो गयी हैं उसकी आँखें पिचक गए हैं गाल
उमर है उसकी कुल तेरह साल

तन पर पूरे वस्त्र नहीं जीवन में कोई उत्साह-उमंग नहीं
चेहरे पर वो चमक नहीं

विपरीत हवाओं से लड़ रहा है वह हर शीत हर घाम
काम काम बस काम

रहता है तीन सौ पैंसठ दिन इसी शहर में
कहाँ जा पाता है अपने गाँव
और बढ़ता ही जाता है हर दिन उसका काम
श्याम श्याम श्याम

उसके लिए सब दिन एक समान
होली हो या हो दिवाली
हरदम करता रहता है सहमा-सा चुप बस काम ही काम
नहीं करता है किसी से कोई बात
दो पल बैठे सुस्ताए ऐसा नहीं है उसका कोई ठाँव
काम ही काम बस काम

ढाबे की जगह उसे होना था स्कूल में
होनी थी हाथ में कलम और किताब
जहां पलते आँखों में सुंदर जीवन के सपने
पर नहीं पता उसे क्या होता शिक्षा का अधिकार
वह जानता काम, बस काम

वह छोडऩा चाहता है यह काम
वह छोडऩा चाहता है शहर
उसे याद आते हैं
माँ-बाप-भाई-बहन और मित्र
वह चाहता है
सुस्ताना पीपल की छाँव
वह रहकर शहर में कहता कितना प्यारा
कितना सुंदर उसका गाँव।