ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला!
मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला!
एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला
ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला!
इस रहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला!
आरज़ू, हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत, आँसू
इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला!
जो भी गुज़रा तिरी फ़ुर्क़त में वो अच्छा गुज़रा
जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला!
घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को
हैफ़! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला!
क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला!
जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’
तू भी कमबख़्त! ज़माने का सताया निकला!