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तक़सीर क्या है हसरत-ए-दीदार ही तो है / 'वामिक़' जौनपुरी

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तक़सीर क्या है हसरत-ए-दीदार ही तो है
पादाश उस की हुस्न का पिंदार ही तो है

क्या पूछते हो मेरा फ़साना नया नहीं
क्या देखते हो इश्क़ सर-ए-दार ही तो है

बंद-ए-क़बा चटकता हुआ ग़ुँचा-ए-गुलाब
पहलू-ए-यार निकहत-ए-गुलज़ार ही ता ेहै

हम-साएगी में उस की है क्या लुत्फ़ इन दिनों
लेकिन ये लुत्फ़-ए-साया दीवार ही तो है

ऐ बाग़-बाँ ब-नाम-ए-बहाराँ न छेड़ उसे
गुल-ज़ार मे मुहाफ़िज़-ए-गुल-ख़ार ही तो है

साज़-ए-हयात हम-नफ़सो ख़ूब है मगर
कब टूट जाए साँस का इत तार ही तो है

मैं तंग हूँ सुकून से अब इजि़्तराब दे
बे-इंतिहा सुकूल भी आज़ार ही तो है

ख़ुद जिस में कुछ न पाया न औरों को कुछ दिया
फ़िल-अस्ल ऐसी ज़िंदगी बेकार ही तो है