तकाज़ा वक़्त का है ख़्वाब चीज़ों में बदल जाएँ।
चलो हम तुम दबा कर नींद पलकों में निकल जाएँ।
हमारे खू़न में पिघला हुआ सोना लगा बहने
हमें डर है कि सिक्कों में कहीं हम भी न ढल जाएँ।
छतों से छांव की उम्मीद अब भी है, मगर क्यों है
तपिष ऐसी कि घर की ठोस बुनियादें पिघल जाएँ।
मरे दिन के सिरहाने शाम का उतरा हुआ चेहरा
अंधरों से गुज़ारिश है इन्हें आकर निगल जाएँ।
चिराग़ों की तरह जलना नहीं मुमकिन मगर यारो
चिराग़ों की जगह ये हाथ मुमकिन है कि जल जाएँ।