उफनाई नदी में पांव भिगोकर बैठना
घुटनों से लगकर प्रेम के
थामकर अराल ऊंगलियां
मौन का स्वस्तिवाचन होता है
अंजुरी में रिक्तियों के पुष्प सौंपना
कलाई में बांधना इच्छाओं का कलेवा
माथे पर टांक देना
आसयुक्त विश्वास का रक्तिम टीका
और बन जाना पूजा की थाल
प्रेम की निजता है
पैरों में महावर की चमक लेकर
दुल्हन के पाजेब का स्वर
विरह की गीत का आर्तनाद भी होती हैं
प्रेम की प्रतिवनियां गूंजती नहीं
विरहन रात बजती है
कानों में अनवरत...
दुखती नस दबाकर
कम होती पीड़ाएं दौड़ती हैं सरपट
रक्तवाहिनियों के अवरुद्ध होते ही
मस्तिष्क का गणित
अलग होता है मन के व्याकरण से
दोषयुक्त नहीं होता कभी प्रेम
और दंड विधान नियत है
अंतिम भेंट
जो शायद पहली हो
और प्रेम कहते ही
उफनाई नदी लेकर उतर जाए गहरे कहीं
तट पर रह जाएं सदियों तक
मेरे कदमों के निशान अधूरे।