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तन्हाईयों का और एक दिन, तेरे बिन बीत गया / शमशाद इलाही अंसारी
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तन्हाईयों का और एक दिन, तेरे बिन बीत गया,
मेरी हसरतों का चांद लो आज फ़िर डूब गया।
वो थोड़ी़ दूर बादलों के पार जाना था हमें,
वो चार आँखों का ख़्वाब आज फ़िर टूट गया।
इस अनोखे शहर में कोई बसेरा मेरा भी तो हो,
ऐसी मासूम ख़वाहिश का दामन आज फ़िर छूट गया।
इसने कहा, उसने कहा, सबने कहा, कुछ तो लिखो,
लिखने बैठा तो ये क़लम आज फ़िर क्यों रूठ गया।
"शम्स" तेरी मेज़ पर बिखरे ये काँच के टुकड़े़ हैं गवाह,
तंग नज़र के किसी संग से, मेरा जाम आज फ़िर टूट गया।
रचनाकाल: 31.10.2002