भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तन बचाने चले थे / रामावतार त्यागी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तन बचाने चले थे कि मन खो गया
एक मिट्टी के पीछे रतन खो गया

घर वही, तुम वही, मैं वही, सब वही
और सब कुछ है वातावरण खो गया

यह शहर पा लिया, वह शहर पा लिया
गाँव का जो दिया था वचन खो गया

जो हज़ारों चमन से महकदार था
क्या किसी से कहें वह सुमन खो गया

दोस्ती का सभी ब्याज़ जब खा चुके
तब पता यह चला, मूलधन ही खो गया

यह जमीं तो कभी भी हमारी न थी
यह हमारा तुम्हारा गगन भी अब खो गया

हमने पढ़कर जिसे प्यार सीखा था कभी
एक गलती से वह व्याकरण भी खो गया.