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तपते दिनों की कविताएँ / यशोधरा रायचौधरी / मीता दास

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१.

जितनी दूर तक नज़र जा सकती हैं चली जाऊँगी मैं
तुम लोगों का अन्धकार भी उतना अन्धकार नही,
रंग है सिर्फ़ बादामी-बादामी
यहाँ कोई डर नही किन्तु मैं अपने भीतर भी सरक रही हूँ
यही तो डर है
तुम लोगों के उजाले वे उजाले नहीं ।
 
बेहद कत्थई - कत्थई से हैं
फॉग लाइटों के बीच उलटी (वमन) की तरह सिर्फ़ पड़ा है
आकाश जूठा कर
या ऐसा प्रतीत होता है मानो पानी में केरोसिन तैर रहा है,
यही है वास्तविकता, यही है खदान ।
  
एक अधखाए बिस्कुट की तरह यह जो चाँद उगा है, उसी लटके चाँद को उतार लाऊँ,
आकाश में खपच्ची मार ,
और फिर ऊपर जाकर जला आऊँ बाती ।

२.

इसके पश्चात भी मुझे पहचान सकोगे अत्यन्त क्षीण छाया में
कितनी धूप थी उस दिन
किसी को है पता ? माया को रि-इश्यू करवाना
कितना मायावी था
किसको है पता ? वह सुख परकीय नही नारकीय था ।

उसके पश्चात उन सभी विष्णताओं को तोड़
फूट निकलेगी मेरी सहनशीलता, धूप की तरह बिखरी-बिखरी
और पालतू कुत्ते की तरह हमारे पैरों पर लोट जाएगा
पता नही कितना क़दमों तले
 
प्यार भी इन दिनों स्वादहीन हो उठा घृणा की छुवन से
हमारे बीच का प्यार आज रिरिया रहा है अति अभिनय से
जितनी दूर तक नज़र जाती है चली जाऊँगी,
उसके बाद लौट भी आऊँगी, इन सभी एसी की ठण्डक लिए लीलाओं में ।

३.

किसने-किसने कौन-कौनसे पाप किए हैं ? बताओ ।
किसने-किसने कौन-कौनसे अन्याय किए हैं ? बताओ ।
किसने-किसने कौन-कौनसी आत्मप्रवँचनाएँ की हैं ? कहो ।

तुम सभी के पाप अस्वीकृत हैं आज
कड़ी धूप में झूल रहा है आकाश
आकाश के कोनो से टपक रही है धूप

ठीक धूप की तरह नहीं, और ही तरह के विकीर्ण ताप की तरह
सीधे पैरों को छूने से पहले ही
पूरे वातावरण को उबालकर रख देता है

इधर केवल मैं सौरताप की रसोई से नमक लाती हूँ
और रात का बासी चावल ख़त्म करती हूँ ।
बरसात का अनुमान लगाती हूँ, ग़लत अनुमान लगाती हूँ
फिर-फिर अनुमान लगाती हूँ
और फिर दोबारा ग़लती करती हूँ ।

मूल बांगला से अनुवाद : मीता दास