भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तपते हए सहरा में शज़र का साया-सा लगा / शमशाद इलाही अंसारी
Kavita Kosh से
तपते हुये सहरा में शज़र का साया-सा लगा
अजनबी शहर में एक शख़्स अपना-सा लगा।
सुखे फ़ूल सूखे पत्ते सूख गया हर एक रिश्ता
जज़्बातों के इस बंजर में एक पौधा-सा उगने लगा।
बदलते मौसमों जैसे चेहरों की इस दलदल में
किसी ने देखा हो मेरा चेहरा ऐसा गवाह-सा लगा।
"शम्स" तुमने जो भी माँगा ज़िन्दगी ने वो सब-कुछ दिया
इस अनोखे दोस्त का उजला दामन जाने क्यों अच्छा-सा लगा।
रचनाकाल: 21.07.2002