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तप्तगृह / सर्ग 7 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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उदित हुआ अम्बर में
भासमान बाल-रवि
मानो कल्पान्त के
ध्वंसक अनल का
लाल-लाल गोला हो।
व्योम-प्रान्त भर गया
प्रखर ज्वाल-माला से
और लगा पिघल-पिघल
चक्रवाल जलने
भट्ठी की आँचों से
शुष्क-काष्ठ-खण्ड ज्यों
धाँय-धाँय जलता
लपटें लगीं फैलने
गिरने लगीं दाह-भरे
नभ से चिनगारियाँ।

बन्ध्या की कोख-सी
सूखी थी धरती
झाड़-झंखाड़ यत्र-
तत्र दीख पड़ते थे
फूल मुरझाये और
कलियाँ निर्जीव-सी।
झंझा ने शीघ्र ही
सक्रिय सहयोग दिया
आग तब खमंडल की
लाँघकर क्षितिज-प्रान्त
फैली भू-मंडल पर
भर गई दिशाएँ और
घोर हा-हा-रव से।

तप्तगृह नरक बना
छप्पर, प्राचीर और
मिट्टी लगी जलने
यातना कराह उठी
तड़प उठी पीड़ा भी
किंतु बिम्बसार शांत
मानो संहार की
लपटों में बैठा हो
मौन कारुण्य का,
मानेा विश्वास अटल
अविचल हो ध्यान-मग्न
सामने ही आँखों के
भाग्य-लिपि जलती हो!

पूछा बिम्बसार ने
अपनी ही साँसों से-
मन्द-मन्द चलती क्यों
कल तो तू आँधी को
गति से भी तेज थी
चाहती थी तोड़ना
लौह-द्वार स्पंदन से
किंतु नैराश्य लगा
हाथ। उधर हँसती थी
दारुण अभिशाप-भरी
निष्ठुर प्रवंचना!
मन्द-मन्द चलती तू
होता प्रतीत मुझे
तेरा सदेश गया
पहुँच गया कोणक के
तू ही तो तार है
आत्मा की बीन का।
होता प्रतीत मुझे
तेरी झंकार यह
निश्चय ही कोणक ने
सुन ली हैदूर से
तेरे संदेश का
आग्रह न टालेगा
कोणक महान है
पल-भर में लौटेगी
ठोकर की चोट से
भूमि पर प्रवंचना,
पल-भर में राजनीति
हारकर झुकायेगी
गर्वयुक्त शीश निज
करुणा के सामने।
बोल, एक बार बोल
साँस मेरे हिय की,
क्या न यह सत्य है?“

सुनती थी पास ही
छिपकर प्रवंचना,
बोल उठी सहसा यह
क्रूर अट्टहास कर-
”करुणा का नाम है
वस्तुतः कदयंता
और हीन-वीर्य ही
करते हैं विश्व में
उसकी आराधना
उसको अभ्यर्थना।
राजनीति जीवन को
आगे बढ़ाती है,
धोकर मनुष्य के
निष्प्रभ विचारों को

अपने अंगार से
उनको चमकाती है।
एक राजनीति ही
जीवित रही क्षेत्र में
करुणा तो पौरुष के
सपनों का शव है
पूर्ण दुर्गन्ध से,
और इस शव को
देती फेंक गर्व से
ज्वाला में राजनीति
शेष अस्थिमात्र ही
रहता है अन्त में
जिस पर मँडलाते हैं
गीध और कौए!
धर्म, नीति, ज्ञान और
दर्शन की गुत्थियाँ
क्लीव सुलझाते हैं
कोणक तो वीर है।“

चक्रसा घूम गया
आँखों के समने
किंतु बिम्बसार रहे
शान्त पूर्ववत ही
इतने में द्वार खुला
और राजनापित आ
हाथ जोड़ खड़ा हुआ
थर-थर-थर काँपता
देखा बिम्बसार ने
एक बार उसको
एक बार देखा फिर
बधिर लौह-द्वार को
खुल कर जो बन्द हुआ
पहले-सा पल में
सोचा नरेश ने-
”किसका है रूप यह
छद्म-वेश धारण कर
आता है कौन यह
राजनीति-राक्षसी
द्वेष या प्रवंचना
या कि है करुणा का
अश्रु मूर्तिमान यह?“

शून्य तप्तगृह का
हो गया भयावना,
साँसें दो चलती थीं
एक उस नापित की
और एक राजा की;
किंतु गति दोनों की
भिन्न थी बहुत ही
नापित की साँसों में
झंझा थी दौड़ती
स्पंदन के वेग से
तप्तगृह हिलता था,
और साँस राजा की
मन्द-मन्द चलती थी
चलती है जिस प्रकार
आयु काल-पथ पर।

देख गम्भीर, मौन,
शांत बिम्बसार को
नापित यों बोल उठा
अति विनम्र स्वर में-
”सम्मुख श्रीमान् के
आया हूँ आज मैं
आता अभिशाप ज्यों
जीवन के पथ में
रौरव का रूप धर
दुर्दिन की रात में
आता है ध्वान्त ज्यों
मयंक को मिटाने।
कायर के तर्क को
क्लीव के विकल्प को
क्षम्य कौन कहता?
फिर भी उपस्थित मैं
सम्मुख श्रीमान के
जाने किस शक्ति की
यह विचित्र प्रेरणा?“

”तप्तगृह स्वागत का
कोई स्थान नहीं
ताप इस ठौर है
ज्वाला है, दाह है,
लपटें हैं लू की
यातना है यम की
फिर भी मनुष्य मैं
तुम भी मनुष्य हो
अतएव स्वागत है
बोलो, आदेश क्या?“
पूछा बिम्बसार ने
पूछता है जैसे
आँधी से, आने का
कारण प्रकम्प-भरा
मिट्टी का दीप लघु
‘लौ’ के स्वरों में।

नापित की आँखों से
अश्रु लगे बहने
और कहा राजा से
उत्तर में उसने-
”होता यदि मूक मैं
या कि जीभ जाती कट
तो मैं सराहता
भाग्य आज अपना।
एक ओर आग्रह के
आँसू-सी भावमयी
सामने खड़ी है दीन
कातर मनुष्यता,
एक ओर बार-बार
आँखें गुरेरता
हिंसक के क्रोध-सा
भय कठोर शासन का
बीच में खड़ा है क्लीव
दास...

दु्रत खेल गई
नीरस मुस्कान एक
सौम्य मुख-मंडल पर
बन्दी नरेश के
और उठे बोल वे
बात काट नापित की
”शासन कल्याणमय
होता कठोर ही
निर्भय ही शीघ्र करो
पालन कर्त्तव्य का
क्या है आदेश महा-
महिम मगधराज का?“

गहरी उसाँस ले
नापित लगा कहने-
”अतिशय कठोर और
निर्मम आदेश है।
पैरों को आपके
पहले है चीरना
और जब पीड़ा की
टीस उठे घाव मं
लौन भर उसमें तब
भरना अंगार है!
आज्ञा न शासन की
आज्ञा न न्याय की
बल का नृशंस यह
दुर्दम हुंकार है।
पूजा जिन हाथों ने
इन पवित्र चरणों को
वे ही प्रहार करें
किस प्रकार उन पर?
जिसकी कृपा के दो-
चार कण बटोर कर
जीवन को आज तक
ढोता रहा जग में
कैसे बहाऊँ मैं
रक्त उस महान का?“

बिम्बसार स्तब्ध रहे
कुटिल खेल देखकर
सत्ता के जादू का;
स्तब्ध रहे देखकर
नग्न नारकीय नृत्य
मानव के भीतर की
दानवी प्रवृत्ति का
देखा लौह-द्वार को
और देखा नापित को,
देखा फिर आँख फाड़
भावी का रूप भी
लपटों के बीच जो
द्रव-सा था जलता
रंचक भी किंतु नहीं
व्याकुल नरेश हुए,
सोचा कि चलता था
खेल लोमहर्षक जो
मंच पर मगध के
उसका दृश्यान्त अब
आ गया समीप है,
पटाक्षेप होने की
बेला भी आ गई!

ठीक तभी बोल उठी
फिर वह प्रवंचना
”मानव का रक्त ही
काव्यराजनीति का
लिखती हूँ जिसको मैं
सत्ता के पट पर
युग-परिवर्तन का
आता मुहूर्त्त जब
उसमें तब विस्फुलिंग
भरती हूँ मैं ही!“

बन्दी नरेश ने
आगे बढ़ थाम लिया
हाथ राजनापित का
करुणामय प्रेम से
और उठे बोल
गम्भीर वीर स्वर में-
”कल के मगधराज
आज राजबन्दी हैं
फिर भी प्रसन्न हैं
क्योंकि आदेश यही
न्याय यही शासन का।

प्रश्न जब समष्टि का
प्रश्न जब समूह का
प्रश्न जब स्वदेश का
सम्मुख उपस्थित हो
व्यक्ति का विचार तब
अनुचित ही होगा
मेरे देहान्त में
सुभग रूप भावी का
मंगल स्वदेश का
देखते मगधराज
अतएव तथ्य-हीन
निर्णय न उसका
मंगल हो मगध का
और मगधराज का
नापित! न भलो तुम
पालन कर्तव्य का
परम धर्म होता है;
बन्दी तैयार है
चोरा लगाओ तुम
पैरों में मेरे।“

और बाद इसके
काण्ड वह घोर हुआ
जिसके उल्लेख से
पृष्ठ इतिहास के
काले हैं आज तक
जिसकी उत्ताप-भरी
स्मृति के कचोट से
उठतीं कराह गिरि-
पंक्तियाँ उदास और
बसती उजाड़-सी
भग्न राजगृह की!

बिम्बसार बैठे थे
मानो बुद्ध बैठे हों
भूल संसार को
लीन अटल ध्यान में
होतीं विकीर्ण थीं
किरणें प्रकाश की
उनेक प्रशान्त, सौम्य,
दीप्त मुख-मंडल से
काँपते थे वज्र-से
निठुर हाथ नापित के
किंतु काम करता था
लौह-यन्त्र शल्य का
बहती थी रक्त-धार
पी-पीकर भूमि जिसे
प्यास निज बुझाती थी
चलता था हाथ और
लौह-यंत्र चलता था,
गिरते थे मांस के
कट-कट कर टुकड़े,
दाँतों को यद्यपि
नरेश थे दबाए
तोभी कराह और
आह निकल जाती थी,
काँप-काँप उठता था
शून्य तप्तगृह का!

और जब यंत्र रुका
सुलग उठी एक ओर
नापित की साँस से
आग सर्वनाश की;
मानो रूप धारण कर
आई हो यातना
जीभ निज निकाले
हड्डियों के रक्त को
चाटने उमंग से

चीरना समाप्त हुआ
व्रण मं तब लौन ीार
भरने अंगार लगे
क्रूर कर नापित के!
वक्ष तान, साँसों को
रोक लिया नृप ने
नसें लगीं फूलने
फूलती शिराएँ ज्यों
आग्नेय पर्वत की
पहले विस्फोट के,
नेत्र लाल हो गए
मानो अवशेष रक्त
सारे शरीर का
छाँह में पुतलियों की
केन्द्रित हुआ हो जा।

लौन की जलन तीव्र
पीड़ा का ताप और
ताप निठुर ग्रीष्म का
ताप तप्त अग्नि का
हो उठा असह्य और
भीषण चीत्कार कर
बिम्बसार लोट गए
मूर्च्छित हो भूमि पर!

हाय, रो प्रवंचने!
सत्ता की लिप्सा का
कैसा कठोर रूप
तूने बनाया है
और स्वयं कितनी तू
प्यासी है रक्त की!
सत्ता के प्यार की
साँसों में नाश की
भट्ठी बन रात-दिन
जलती तू नरक-सी
स्वार्थ के पिशाच की
तू वह कुटिल शक्ति
नागिन-सी जो कहीं
विष है उगलती,
और कहीं हिंसा का
चक्र है चलाती;
रुकती गति जीवन की
किंतु नहीं तेरी गति
रुकती है विश्व में!