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तप्तगृह / सर्ग 9 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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देखा बिम्बसार में
भिक्षु देवदत्त ने
रूप साम्राज्य के
विस्तृत विस्तार का
देखा रूप सत्ता के
मादक शृंगार का
देखा न किन्तु हाय,
मानव का रूप वह
जो कि मन-प्राणों में
सत्तारूढ़ नृप के
दिन-रात, प्रति क्षण-पल
जलता था दीप बन
ज्योतिर्मय ज्ञान का
देखा न रूप वह
मानव का त्यागमय
मौन उत्सर्ग ही
जिसका इतिहास है

करुणा से पूर्ण और
शांत क्षमा-सिंधु-सा
और यही दृष्टि दी
भिक्षु से प्रवंचक बन
कोणक को उसने
जिसके प्रभाव की
कालिख में स्नान कर
पुत्र बना द्रोही
कठोर पित-हन्ता
किंतु बिम्बसार ने
देखा कुछ और ही
देखा कि मानव के
भावों की भूमि पर
चक्र परिवर्तन का
चलता है वेग से
सूर्य-चन्द्र-तारे सब
रोक-रोक हारे सब
घोर घर्घर-रव से
काँपता अनन्त भी
उन्नत क्षितिज के
समुन्नत ललाट पर
रक्त-चिह्न अंकित हैं
वस्त्र पर दिशाओं के
रक्त-चिह्न अंकित हैं
रक्त-चिह्न सब ओर
चक्र परिवर्तन का
चलता है वेग से
मिटता अतीत है
मिटता अतीत का
गर्व उसी वेग से
और खड़ा सम्मुख है
वर्त्तमान वक्ष तान
मानो हो क्रोध खड़ा
सैन्य-शक्ति सारी ले
साथ अहंकार के।

देखा बिम्बसार ने
और वे समर्पण के
निस्पृह अनुराग-से
आतुर हो बुद्ध की
करुणा के तेज में
मौन मंत्र-मुग्ध लगे
प्रेम से निघलने
जितने कण रक्त के
उनके शरीर से
निकल गिरे धरती पर
उतनी ही बार कहा
मन-ही-मन नृप ने
”कोणक जान लेता हाय
होता पुत्र-प्रेम क्या!“
और यही बोलकर
साँस रुकी धीरे से
रुकती जिस भाँति है
दूर की पुकार गूँज
बार-बार शून्य में

आँखों की ज्योति का
प्राणों के प्यार का
एक मात्र पुत्र ही
होता आधार है
जीवन के शून्य में
गीत की तरंग वही
प्रतिपल उठाता है
वंशी-सा बोलकर
डोलकर जगाता है
सारे भविष्य को
स्नेही पिता के मुग्ध
भावों के मौन में
आशा, उमंग वह
अरुणिम उल्लास भी
करुणा का उत्स वही
बल भी, विश्वास भी!

एक वही वैभव है
घन है बस एक वही
जिसपर समान प्रेम
होता है सबका
चाहे वह राजा हो
चाहे वह रंग हो!
पुत्र-प्रेम जादू है
टोना है या कि वह
जाने विधाता ही
दुर्बल मनुष्य तो
पाकर इस प्यार को
सारे संसार को
ईश्वर को भूलता
भूलता अदृष्ट की
सारी प्रतिकूलता
और वह प्रकृति का
नियम भी विचित्र-सा
अपनी अपूर्ण
अभिलाषा को साथ ले
साथ ले अपूर्ण प्यार
आता है धरती पर
पिता पुत्र बनकर।

उस ओर कारा में
प्राण बिम्बसार के
निकले शरीर से
इस ओर राज-भवन
गूँज उठा बार-बार
स्वागत के गीत और
मंगल-मंजीर से
किरणों की डोर से
अथवा समीर से
या कि किसी स्नेहमयी
करुण की आँखों के
अमल-धवल नीर से
उतरा शरीर धर
कोणक का पुत्र बन
नन्हा-सा प्राण एक।
पाया संवाद जब
कोणक ने हर्ष-भरा
उमड़ पड़ी बाँध तोड़
उसके आनन्द की
उन्मद समुद्र-धार
पुलकित कर, प्लावित कर
बार-बार, शत बार
मन-प्राण, रोम-रोम,
रन्ध्र-रन्ध्र भावों के
सुविपुल विस्तार का
कण-कण पुकार का
ताप-भरे जीवन की।

बेसुध हो झूम उठा
कोाक उमंग से
उठता है झूम ज्यों
ग्रीष्म का प्रचण्ड व्योम
पागल आषाढ़ के
पहले पयोद की
पहली फुहार से
पहले दुलार से
वर्षा-बधूटी के।
मागध-साम्राज्य को
पाकर भी एक बार
कोणक था हर्ष से
नाच उठा ऐसे ही
किन्तु वह हर्ष था
भिन्न इस हर्ष से।
उसमें अभिमान था
इसमें था स्नेह-कम्प
उसमें औद्धत्य था
मरु के प्रकोप का
इसमें रस-धार थी
ममता के मर्म की
उसमें थी आग-भरी
क्रूरता, कठोरता
इसमें पराग-भरी
मृदुता थी मोह की
उसमें उल्लास था
प्रभुता के मद का
इसमें था हेम-हास
आँसू के सुख का
उसमें था अट्टहास
उसमें था विस्मण
इसमें पहचान थी
भीषण विद्रोह था
उसमें व्यक्तित्व का
इसमें अपनापन था
स्वर्ग अपनान का
उसमंे अंगार था
इसमें पीयूष था
उसमें था उग्र ताप
इसमें थी चाँदनी!

प्रथम-प्रथम कोणक को
ऐसा प्रतीत हुआ
मानो एक नन्ही-सी
जाग रही क्रान्ति हो
और किसी कोने में
गगन-मगन-मन के
उगता हो पूनम का
नन्हा-सा चन्द्रमा
ऐसा प्रतीत हुआ
मानो समस्त गर्व
सारी कठोरता
पत्थर-से हिय की
बनती हो मन्द-मन्द
मधुर-मधुर रागिनी
और वह संज्ञा को
अपनी विसार कर
सुनता हो जीवन के
तट पर अनन्त के
बीच अनजान-सा
सुनता हो केवल वह
और वह रागिनी
शत-सहस्त्र लहरों में
अपने को बाँट कर
बढ़ती हो सब ओर!

कोणक ने प्रश्न किया
”किसका आह्वान यह
किसके सम्मोहन का
मृदु-मृदु प्रभाव यह
आज एक विश्व नया
खुलता है मन में
जिस प्रकार खुलता है
कोमलतम पुष्प-दल
सारा वसंत ले
मधु की उमंगमयी
एक ही तरंग में
फूट रही एक नई
ज्योति आज मानस में
नस-नस में एक नई
उठती हिलोर है
साँसें मनुहारमयी
बनती झंकार और
आँखें अनुरागमयी
बनती त्योहार हैं,
कैसा परिवर्तन है?“
धीरे से बोल उठी
कोणक की आत्मा
”रक्त की पुकार यह,
ओर इस पुकार को
सुनते हो आज तुम
प्रथम-प्रथम जीवन में
सब-कुछ था प्राप्त तुम्हें
पौरुष, प्रभाव यश,
गौरव प्रभुत्व-मद
किन्तु था अभाव एक
बैठा अनजान-सा
जीवन के बीच कहीं

आज किरण-बेला में
उसकी भी पूर्ति हुई
और वही पूर्ति तुम्हें
प्रतिपल पुकारती
धारण शरीर कर

बन्धु थे, सखा थे तुम,
पुत्र और स्वामी थे,
शासक-सम्राट थे;
किन्तु थे न पुत्रवान!
नीरव अभाव वही
अबतक था बोल रहा
भिन्न-भिन्न स्वर में
उद्धत-सा, निर्मम-सा
करुण-सा, रक्तप-सा
क्रूर अहंकार-सा
और निर्बन्ध-सा
आज वह रिक्तता
रिक्त नहीं ईषत भी
मेरे ही अंश से
भरकर वह दीखती
सब प्रकार परिपूर्ण
बनकर आलोक-पिण्ड
जिसमें है कौंधता
रक्त-कण तुम्हारा ही।

उतरी हूँ मैं ही तो
छूने तुम्हारे उर-
तारों को स्वर्णमयी
ममता की रश्मि से;
व्यर्थ सोचते हो क्या
बैठ इस शून्य में!
रानी उस ठौर राह
देखती तुम्हारी है।
माता के दूध-भरे
अंचल को स्नेह से
मुझपर पसार कर
एक दिन उठाया था
तुमने भी ऐसा ही
ज्वार बिम्बसार के
उर में उमंग-भरे
उत्सव की धूम वह
वैभव वह, भूल गये?
बोलो फिर किस प्रकार
प्यार तुम लुटाओगे
मेरे नये रूप पर?“
कोणक गंभीर हुआ
बैठ गया व्याकुल हो
मानस-आवेग से
आँखों में अश्रु लगे
मेघ-से उमड़ने
हाथों से ढक कर तब
मुख की न जाने क्यों
भावों का वेग लगा
आहों से बाँधने!