तफ़्तीश / अनुराधा सिंह
नदियाँ पहाड़ों से उतरीं थीं
यह बात सरल नहीं थी
पहाड़ों ने उनके दुःख देख रखे थे
नदियाँ इसी लोकापवाद भय में घुल घुल कर
क्षीण हो गयीं
क्षीण होते होते लुप्त हो गयीं
लेकिन पहाड़ के कपोल पर रह गए
वे शोकचिन्ह
हवाओं में घुला रह गया आँसुओं का नमक
ये दुःख और आँसू सरल नहीं थे
नदियाँ नष्ट होते समय भूल जाना चाहती हैं
घुल घुल कर मरने के चिन्ह
दुःख समाप्त हो जाते हैं एक दिन
आँसू बहने बंद हो जाते हैं
ज्ञात दुःख नष्ट नहीं होते
जानने वालों के भीतर अन्तःसलिला बहते हैं.
एक दिन भूगर्भ शास्त्री आते हैं
हाइग्रोमीटर और ड्रिल लेकर
पढ़ते आँसुओं की परतें
कुरेदते पहाड़ का सीना
चखते हवाओं का नमक
करते हैं मुनादी
यहाँ कभी किसी के होने के दुःख बहे थे
यहाँ से गिरा तो बंट गया कोई प्यास-प्यास
अनासक्त समय ने मिटा दिए हैं सभी साक्ष्य
फिर भी, यहाँ एक नदी की हत्या की गयी थी।