भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तब / शंकरानंद
Kavita Kosh से
असंख्य बार मैंने गिनना चाहा
लेकिन तारे कभी उँगली पर नहीं आए
हमेशा बाहर रहे और उनका टिमटिमाना
धूल ने भी अपने पानी में देखा
बच्चे जब-जब थके
बैठ गए अगली रात के इंतज़ार में और
फिर निराश हुए
ये तारे फिर नहीं गिने गए
ये तारे जहाँ रहे
कभी झाँसे में नहीं आए किसी के
वरना जिनके पास ताक़त है
उनकी जेबों में टिमटिमाते रहते ।