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तब / सुनील श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
तब
नदी ज़िन्दा थी
सूखे नहीं थे उसके स्रोत
उछलती लहरों के बीच
लहराती थी जवानी भरपूर
दीवाना चान्द उसमें पाँव लटकाकर
छपछप करता था
और मैं पागलों-सा
हवा के साथ दौड़ लगाता
ढूँढ़ा करता था तुम्हें
खेत में, बधार में
हाट में, बाज़ार में
घर में, दुआर में
आकाश में, पाताल में
और न जाने कहाँ कहाँ
तब तुम कहाँ थे मेरे दोस्त
काश, तब तुम मिल गए होते
जब मेरे ज़िन्दा होने के सारे सबूत
मौजूद थे मेरे पास
तब जीवित थी मेरी माँ
मुझसे छूटा नहीं था मेरा शहर
और मुझे याद थी अपनी सारी कविताएँ ।