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तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम / शाद अज़ीमाबादी

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तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम
वफ़ा सरिश्‍त में थी हो रहे यहीं के हम

निकल के रूह डंवाडोल हो न जाए कहीं
हज़ार हैफ़ न दुनिया के हैं न दीं के हम

नज़र उठा के न देखा किसी तरफ़ ता-उम्र
रहे ख़याल में इक चश्‍म-ए-सुर्मा-गीं के हम

ज़मीं छुड़ाई गई हम से जब बना कर ख़ाक
यहाँ पे क्या न रहे ऐ सबा कहीं के हम

यहाँ मकाँ है तो क्यूँ आसमाँ की सैर करें
मकीं हैं ‘शाद’ अज़ल से इसी ज़मीं के हम

ज़माना ‘शाद’ हमें क्यूँ भूला नहीं देता
न हजू के न सज़ा-वार आफ़रीं के हम