तमाम गर्दिशों की आँखों में खटकते हुए
मिला मुक़ाम मुझे दर-बदर भटकते हुए
चराग़ पीते रहे रात भर अँधेरों को
धुआँ-धुआँ हुई है रात सर पटकते हुए
गुलों की आँखों में रंगीनियाँ सी दिखती हैं
बहार आ रही है, बाग़ में मटकते हुए
सुनहले स्वप्न सभी गाँव के हुए ग़ायब
किसान दिख रहे हैं खेत में लटकते हुए
उन्हें भी शेर में बाँधा है मैंने नाज़ों से
मिले जो मिसरे मुझे 'बेख़बर' भटकते हुए