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तरंग मालाएँ / विजेन्द्र

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उठी आती है तरंग मालाएँ काले जल की
इस चट्टानी तट की ओर
हर बार भीगती है रेत
भीगता हूँ
मैं भी
बिना भीगे
कहीं
देखता हूँ हर रोज़ पैने नाखून बढ़ते
मैं इन्हे काट देता हूँ
उससे पहले
ये किसी
नरम फूल
नयी कोंपल
या उजली हँसी में जा छिदें।
हर बार सुनता हूँ
हवा की गति
लय जीवन की
टकराती हर बार
दिन के बारीक तारों से
जो क्षण मुझे छूकर गया गर्दन पर अभी-अभी
उसे भूला नहीं हूँ
फटकता हूँ दाने
भूसी से अलग करने को।

2007