तरफ तरफ वही सितम-ज़रीफ़ आइना तो है / रमेश तन्हा
तरफ तरफ वही सितम-ज़रीफ़ आइना तो है
वो आइना जो कुछ न देख कर भी देखता तो है।
है चुप अभी तो क्या हुआ, न जाने कब ये बोल उठे
ये क्यों कहो कि आइना बस एक आइना तो है।
दुखों का घर तो है, मगर हसीन है ये ज़िन्दगी
हमारे जीने मरने को यही, फ़रेब सा तो है।
खुद अपने ही वजूद के मुशाहिदे को ही सही
ये कम है क्या कि ज़ीस्त ने मुझे तुझे चुना तो है।
भला हुआ कि आप ने मुझे मुआफ़ कर दिया
मिरे बचाओ का, मैं जानता था रास्ता तो है।
यकीं न आये बात का मिरी तो खुद ही देख लो
है कोई आग उस तरफ, उधर धुआँ उठा तो है।
जियो खुद औरों को भी जीने दो ख़ुदा के वासिते
सवाल इसमें फिर तुम्हारे ही वक़ार का तो है।
अनंत आसमां में बर्क़ की लपक ही की तरह
ये ज़िन्दगी हयात में बस एक मरहला तो है।
ये और बात है कि बात ही सिरे न चढ़ी
जो कुछ बना, किया तो है, जो कुछ हुआ, सहा तो है।
अजीब हैं ये उल्टी सीधी सोच के भी सिलसिले
यक़ीन था न होगा कुछ, गुमां है कुछ हुआ तो है।
ये जाते जाते 'ते' भी 'नून' 'हे' 'अलिफ़' से कह गई
ग़ज़ल कुछ और हो न हो रदीफ़ क़ाफ़िया तो है।