भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तराना-ए-फ़ुर्क़त / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
यूँ महव-ए-रक्स हैं अलफ़ाज़ मेरे गीतों के,
उसी पाजेब की रुमझुम का गुमाँ होने लगा,
वो तेरा साज़ उठाना,
वो तराने गाना,
वो पुराना समाँ, आँचल को फिर भिगोने लगा!
फिर ख़लिश उठने लगी है
दिल-ए-नाज़ुक में मेरे,
उभर रहा है धीमे-धीमे तेरा अक्स वहीं...
भीगी पलकों के तले,
चश्म-ए-नीमबाज़ खुले,
पै तेरा नामो-निशाँ तो नज़र न आए कहीं...
रोक लो अब कोई झंकार न होने पाए,
न ढले शाम और न रात ही सोने पाए,
वो मेरा हमनवा, कि दूर जा बसा है कहीं ,
मेरे बोलों को तरन्नुम में न कोई गाए,
मेरे बोलों को,
तरन्नुम में,
न कोई गाए...
06.02.93