तर्क वाली कविता / सपन सारन
कवि से कहा गया —
‘निकालो क़लम और लिख डालो कविता !’
कवि मन्द-मन्द मुस्काया
लो इतनी-सी बात !
इसी के लिए जगाया ?
मैं तो सोए-सोए लिख देता, कविता ।
‘एक शर्त है —
कविता में तर्क होना चाहिए।’
—हैं ! ये कौन-सी कविता हुई ?
‘हाँ जी !’
राजाजी हैं अर्थशास्त्र में पारंगत
उन्होंने जोड़-बाँटा किया
और बताया
कि जीवन में एक ही है चीज़
जो उनकी समझ से है परे
कविता !
क्योंकि कविता बे-तुकी होती है
तर्क-हीन होती है !
तो अब राजाजी का हुक़्म है —
तो कवि से कहो
कि वो कविता लिखे
हो शामिल - तर्क जिसमें ।
जिसे वो पढ़ें
समझें
मुस्काएँ
और वाह-वाही दें –
कि ‘सुभान-अल्लाह, क्या ख़याल है !’
कवि के हाथ लगे काँपने
उसने उन्हें समझाया
सुझाया
गिड़गिड़ाया
झल्लाया
पर हुक़्म था पक्का –
जो न लिखा, तो मौत ।
कवि ने दिन-रात एक किया
खाना-पीना छोड़ दिया
बीमारियों से घिर गया ।
ठण्ड में काँप-काँप कर
गर्मी में झुलस-झुलस कर
वर्षा में रो-रो कर
हर रूप, रंग, भेस, भाषा में की कोशिश
पर तर्क वाली कविता न बनी ।
कभी तर्क से शुरू होता
तो आधे रस्ते ख़्वाबों में तैरने लगता ।
कभी ख़्वाबों से शुरूआत करता
तो उनमें तर्क पैदा करने के चक्कर में
ख़्वाब चूर हो जाते ।
पर वो लिखता रहा
पोथियाँ, काग़ज़, दीवार, पेड़
इमारत, हवा, पानी…
जो मिलता उस पर लिखता
...लिखते-लिखते एक दिन वो मर गया ।
राजाजी खुद उसके घर आए
इस आस में कि
कम-स-कम एक कविता तो पढ़ कर समझ पाएँ
पर सारी पोथियाँ, बर्तन, दीवारें थीं –
बे-तुकी कविताओं से भरीं।
मायूस राजाजी ने हुक़्म दिया :
‘नामुराद को दिया जाए — जला !’
तभी उसकी छाती पर राजाजी की
नज़र पड़ी,
लिखा था :
“जो मेरे जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर दो तो,
हर टुकड़े में भी
एक तर्क-हीन कविता ही मिलेगी तुमको ।”
-‘यही सही !’
उत्तेजित राजाजी ने हुक्म दिया —
-‘काट दो !’
अब कवि राजा के सामने पड़ा था
टुकड़े-टुकड़े हुआ —
कविता-हीन
प्राण-हीन
तर्क-हीन ।
राजाजी ग्लानि से भर उठे
राजपाट छोड़ने लगे ।
उन्हें सपनों में कवि के टुकड़े दिखते,
टुकड़ों में बैठी कविताएँ दिखतीं
जो उनपर हंसती :
खिल-खिलाकर,
कह-कहा लगाकर
राजाजी उन्हें छूने की कोशिश करते
तो कवि के टुकड़े लहू के आँसू रोने लगते ।
शाही हक़ीम ने उनको पागल घोषित कर दिया
कहा – राजाजी भारी पीड़ा से ग्रसित हैं,
कमरे में चलते रहते हैं दिन भर
बिना तर्क की बेतुकी बातें करते हैं
और कहते हैं –
‘कविता मिल गई ।’