भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तवायफ / कमलेश्वर साहू

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मेरे गजरे की महक से
वह हो जाता है मदहोश
मैं स्वयं मुर्छित
मेरे आंचल का लहराना
जितना भाता है उसे
उतना ही घबराती हूं मैं
मेरे घुंघरूओं की झंकार सुनकर
झूम झूम जाता है वह
और मैं स्वयं जख्मी
तबले के जिस थाप पर वह
करता है वाह
मेरी छाती में
हथौड़ा बनकर गिरता है
उसे नहीं मालूम
जो वह सुन रह है
सारंगी की आवाज नहीं
मेरी सिसकियां है
मेरे जिस नाच पर
जिस थिरकन पर
जिस ‘बल’, ‘खम’ पर
मुग्ध हो रूपये उड़ा रहता है
मेरी तड़प है
छटछपाहट है मेरी
मेरी आंखों में वह
झील की गहराई देखता है
ढूढ़ता है मयखाना, मदहोशी
मुक्ति का मार्ग ढूढ़ती हूं मैं
उसकी आंखों में
उसके साथ में
सानिध्य में
हर बार पालती हूं उम्मीद
हर बार खाती हूं धोखा
इस बाजार में आने वाला
आता है
महज एक रात का प्रेमी बनकर
और मैं रह जाती हूं
तवायफ
उम्र भर की !