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तसव्वुर से हकीकत तक / रेशमा हिंगोरानी

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तुझसे अच्छा था तसव्वुर तेरा,
टीस उठती थी,
न दिल तड़पा था…

तानों-बानों में ,
यूँ ही रात गुज़र जाती थी!

गम-ए-जहाँ से बेख़बर,
बेख़तर थी मैं!
फिक्र-ए-मँजिल, न खौफ़-ए-तन्हाई...
रह-ए-पुरखा़र पर तो,
यूँ ही निकल जाती थी!

वो बेखुदी का जो आलम,
था दिलफरेब बहुत,
हक़ीक़त-ए-जहाँ से कब था,
वास्ता अपना?
आज भी बेखबर,
उतनी ही,
बेखतर हूँ मैं!
औ’ ख्यालों के उसी,
बेकराँ समँदर में,
फिक्र-ए-साहिल-ओ-नाखुदा से सिवा..

गाह डूबे,
औ’ गाह बहते हुए…
आज भी,
यूँ ही निकल जाती हूँ...

20-10-2002