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तस्वीर लेकर क्या करूँ मैं / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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तुम नहीं आए, तेरी तस्वीर लेकर क्या करूँ मैं!
नयन में मधु वेदना का ज्वार लेकर क्या करूँ मैं!
आज सीने से चिपक कर, दब रही तस्वीर तेरी,
आंँख भी उसको नहीं जो देख पाए पीर मेरी,
ज्वार मन का भी उठे तो चांँद क्यों आता नहीं है!
चाँद की तस्वीर को क्यों ज्वार छू पाता नहीं है!
अब तुम्हारी पातियों की आग जलती जा रही है,
जल रही है सांँस को, दुनिया सुलगती जा रही है,
रूप लेकर आ सको, यदि नेह की पाती ना भेजो,
थक गए मन के पतंगे जलन की बाती न भेजो,

यह लिखावट की गरम जंजीर लेकर क्या करूंँ मैं!
तुम नहीं आए तेरी तस्वीर लेकर क्या करूंँ मैं!

सांँझ के दिए जले हैं, खुल गया है द्वार मन का,
आरती बनकर जलेगा, भोर तक यह प्यार मन का,
और फिर अगली सुबह के बाद काली रात होगी,
तुम ना देखोगे नयन में प्यार की बरसात होगी,
थरथराती कामनाएँ किस निठुर की याद ढ़ोकर!
तुम न आए तो न आए, मैं खड़ी बर्बाद होकर,
तुम कहो लाचार का फिर, ध्यान कैसे ले सकोगे!
कुसुम कली को रंग भी कैसे दोबारा दे सकोगे!

लाश लेकर क्या करोगे, धीर लेकर क्या करूँ मैं!
तुम नहीं आए तेरी तस्वीर लेकर क्या करूंँ मैं!

नयन की तस्वीर ही जब, नीर बनकर ढ़ल गई हो,
मोम की यदि अर्चना, पाषाण पट पर गल गई हो,
और वह बरसात क्या! जब फ़सल मन की जल गई हो,
तुम ना आए तो छले क्या! साँस ही जब छल गई हो,
लाज हीं जब लुट गई तो चीर लेकर क्या करूँगी!
घाव से तन मन भरा है तीर लेकर क्या करूँगी!
लूटकर बस्ती ना लौटे, नाम उसका आदमी है,
लौटकर उसको जला दे, आग मिलने को थमी है,

राख भी ले जा दफन की भीड़ लेकर क्या करूँ मैं!
तुम नहीं आए तेरी तस्वीर लेकर क्या करूँ मैं!