भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तहों में दलदल सतह पे साज़िश धुआँ-धुआँ-सा हरेक घर है / अनिरुद्ध सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तहों में दलदल सतह पे साज़िश धुआँ-धुआँ-सा हरेक घर है
झुकी हुई है हमारी गर्दन घरों में रह के भी दिल में डर है

हताहतों से लिपट गए हैं अलग-अलग ये तमाम चेहरे
उदास मौसम उदास दुनिया उदासियों में डगर-डगर है

कहाँ है बादल कहाँ समन्दर कहाँ घटाओं का शोर-गुल भी
सभी परिन्दे थके-थके हैं थकन का मौसम शजर-शजर है

है शोर इतना ख़मोशियों का है बोझ इतना अकेलेपन का
हरेक घर का यही है मंज़र जो कुछ इधर है वही उधर है

हथेलियों पर पड़े हैं आँसू किसे है फुर्सत जो बढ़ के देखे
जिधर भी देखो बिछी हैं लाशें ये एक मंज़र नगर-नगर है