भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ताइर-ए-अर्श / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
कहा था तूने,
चलेंगे कभी उस पार कहीं...
उफ़क का क्या,
ज़मीन-ओ-आसमाँ के पार कहीं...
मीयाद-ए-इन्तिज़ार कुछ तो मुख्तसर कर दे,
गम-ए-दौराँ से जी बेज़ार हुआ जाता है...
नुक्कूश-ए-यार सराबों में नुमायाँ ही नहीं,
और सागर जो,
दिल के पार हुआ जाता है !
अब तो पाबंदी-ए-रस्मो-रह-ए-दुनिया भी नहीं,
खौफ़-ए-रहज़न भी नहीं,
खौफ़-ए-क़यामत भी नहीं !
आ भी जा,
ले भी चल,
अब मेरे ओ दिलदार सनम,
अब नहीं पाँव में मेरे,
कोई ज़न्जीर-ए-ज़रीं...
आज आज़ाद हूँ,
आज़ाद हूँ मैं पूरी तरह,
निकलना चाहूँ मैं,
सबा के साथ-साथ कहीं
रही बेपर सदा,
पर आज
बेपरवाज़ नहीं !
06.02.1995