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ताक़ पर रक्खी मिली मुझको किताबे-ज़िन्दगी / समीर परिमल
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ताक़ पर रक्खी मिली मुझको किताबे-ज़िन्दगी
कुछ फटे पन्ने मिले और कुछ सिसकती शायरी
चंद ज़ख़्मों की विरासत, चंद अपनों के फ़रेब
उसपे दुनिया की रवायत और मेरी आवारगी
मुद्दतें गुज़रीं, कोई पढ़ने को राज़ी भी नहीं
छुप नहीं पाती है लफ़्ज़ों के दिलों की बेकली
हाय वो मासूम आँखें और उन आँखों के ख़्वाब
इक पशेमाँ आदमी, आंसू बहाती बेबसी
साज़िशों में क़ैद है तू, ख़ुद में सिमटा मैं भी हूँ
इक तरफ़ है बेरुख़ी और इक तरफ़ दीवानगी
इस समंदर का किनारा अब नज़र आता नहीं
साथ मेरे जाएगी मेरी ये शौक़े-तिश्नगी