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ताकि तुम मुझे सुन सको / पाब्लो नेरूदा / अशोक पाण्डे

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ताकि तुम मुझे सुन सको
मेरे शब्द
कभी - कभी झीने हो जाते हैं
समुद्र - तट पर बत्तखों के रास्तों सरीखे ।

कण्ठमाल, जैसे नशे में धुत्त एक घण्टी
अंगूरों जैसे मुलायम तुम्हारे हाथों के लिए ।
और मैं बहुत दूर से अपने शब्दों को देखता हूँ
मुझसे ज़्यादा वे तुम्हारे हैं
मेरी पुरातन यातना पर वे बेल की तरह चढ़ते जाते हैं ।
वह भीगी दीवारों पर भी इसी तरह चढ़ती है ।
इस क्रूर खेल का दोष तुम्हारा है ।
वे जा रहे हैं मेरी अन्धेरी मांद छोड़कर
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो ।

तुमसे पहले वे उस अकेलेपन में रहा करते थे, जिसमें अब तुम हो
और उन्हें तुमसे ज़्यादा आदत है मेरी ख़ामोशी की ।
अब मैं चाहता हूँ वे कहें वो, जो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ
तुम्हें वह सुनाएँ, जैसे मैं चाहता हूँ, मुझे तुम सुनो ।

पीड़ा की हवा के थपेड़े अब भी उनपर पड़ते हैं सदा की तरह
कभी - कभी स्वप्नों के अंधड़ अब भी उन्हें उलटा देते हैं
मेरी दर्दभरी आवाज़ में तुम दूसरी आवाज़ें सुनती हो ।

पुरातन मुँहों के रुदन, पुरातन याचनाओं का रक्त
मुझे प्रेम करो, साथी, मुझे छोड़ो मत । मेरा पीछा करो
मेरा पीछा करो, साथी ! वेदना की इस लहर पर ।

लेकिन मेरे शब्दों पर तुम्हारे प्रेम के धब्बे लग जाते हैं
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो ।

मैं उन्हें बदल रहा हूँ एक अन्तहीन हार में
तुम्हारे सफ़ेद, अंगूरों जैसे मुलायम हाथों के लिए ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक पाण्डे