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तानपूरे पर संगत करती स्त्री / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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पहले-पहल
उसी को देखा गया
साँझ में चमके
इकलौते शुक्र तारे की तरह
उसी ने सबसे पहले
निशब्द और नीरव अन्तरिक्ष में
स्वर भरे
और अपने कंपनों से
एक मृत-सी जड़ता तोड़ी
उसे तरल और उर्वर बनाया
ताकि बोया जा सके - जीवन
वह अपनी गोद में
एक पेड़ को उल्टा लिए बैठी है
इस तरह उसने एक आसमान बिछाया है
उस्ताद के लिए
वह हथकरघे पर
चार सूत का जादुई कालीन बुनती है
जिस पर बैठ "राग" उड़ान भरता है
हर राग तानपूरे के तहख़ाने में रहता है
वह उँगलियों से उसे जगाती है
नहलाती, बाल संवारती,
काजल आँजती, खिलाती है
उसने हमेशा नेपथ्य में रहना ही किया मंजूर

अपनी रचना को मंच पर
फलता-फूलता देख
वह सिर्फ़ हौले-हौले मुस्कुराती है
उसे न कभी दुखी देखा,
न कभी शिकायत करते
वह इतनी शांत और सहनशील
कि जैसे पृथ्वी का कोई बिम्ब हो
अपने अस्तित्व की फ़िक्र से बेख़बर
उसने एक ज़ोखिम ही चुना है
कि उसे दर्शकों के देखते-देखते
अदृश्य हो जाना है।