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तानाशाह की जीत / संजय कुंदन

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वो जो तानाशाह की पालकी उठाए
सबसे आगे चल रहा है
मेरे दूर के रिश्ते का भाई है
और जो पीछे-पीछे आ रहा है
मेरा निकटतम पड़ोसी है
वो वक्त-बेवक्त आया है मेरे काम
और जो आरती की थाल लिए चल रहा है
वह मेरा दोस्त है
जिसने हमेशा की है मेरी मदद
और जो कर रहा प्रशस्ति पाठ
वह मेरा सहकर्मी है मेरा शुभचिंतक

मैं उस तानाशाह से घृणा करता रहा
लानतें भेजता रहा उसके लिए
पर एक शब्द नहीं कह पाया
अपने इन लोगों के खिलाफ
ये इतने भले लगते थे कि
कभी संदिग्ध नहीं लगे
वे सुख-दुख में इस तरह साथ थे कि
कभी खतरनाक नहीं लगे
हम अपने लोगों के लालच को भांप नहीं पाते
उनके मन के झाड़-झंखाड़ की थाह नहीं ले पाते
उनके भीतर फन काढ़े बैठे क्रूरता की
फुफकार नहीं सुन पाते
इस तरह टल जाती है छोटी-छोटी लड़ाइयां
और जिसे हम बड़ी लड़ाई समझ रहे होते हैं
असल में वह एक आभासी युद्ध होता है
हमें लगता जरूर है कि हम लड़ रहे हैं
पर अक्सर बिना लड़े ही जंगल जीत लेता है हमारा दुश्मन ।