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ताना-बाना / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
माँ एक करघा थी
जिस पर हम बच्चों को
बुना गया था
पिता कबीर के पद थे
जिसे अन्तरँग क्षणों में
गाया करती थी माँ
उसके गाने से खिलते थे
कपास के फूल
पवित्र होते थे सफ़ेद रँग
माँ ताना थी तो पिता थे बाना
दोनों बुनने का काम करते थे
पहले बच्चों को फिर
और घर को घोसले की तरह
बुना गया
दूर-दूर से जमा किए
गए तिनके
तूफ़ान में हिलता था
घोंसला
माँ उसे दिल से थामे
रहती थी
अब घोंसले की जगह
तिनके बचे हुए हैं
माँ उड़ कर अनन्त में
चली गई है