तारन्ता बाबू के नाम ख़त - 1 / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल
अपने बाप की पचीसवीं बेटी
और मेरी तीसरी बीवी
मेरी आँखें, मेरे होंठ, मेरी सब कुछ
तारन्ता बाबू,
रोम से भेजता हूँ
मैं तुम्हें यह ख़त
साथ में कुछ भी और नत्थी किए बिना
अपने दिल के सिवा ।
नाराज़ न होना, जानेमन,
दिल से बेहतर कोई तोहफ़ा
इस शहरों के शहर में मैं तलाश नहीं पाया ।
तारन्ता बाबू,
यहाँ यह मेरी दसवीं रात है
और इस वक़्त मैं बैठा हूँ
और मेरा सिर सोना चढ़ी किताबों पर झुका हुआ है
जो मुझे बताती हैं
रोम के वज़ूद में आने की दास्तानें ।
वो देखो ! दुबली-पतली मादा भेड़िया
और उसके पीछे-पीछे
गोलमटोल और नंगधड़ंग रोमुलस और रेमस
मेरी तरफ़ चले आ रहे हैं ।
ओह, मगर परेशान होने की ज़रूरत नहीं
वैसा नहीं है यह रोमुलस
जैसा वह नीले मनकों वाला मोदी सेठ रोमुलस है
1935
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अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल