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तारीफ़ न पूछो उसकी वो तो महबूबा लगती है / सुजीत कुमार 'पप्पू'

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तारीफ़ न पूछो उसकी वह तो महबूबा लगती है,
दिल दहकाती रहती है फिर भी दिलरूबा लगती है।
 
नख़रे उसके कितने सारे लेकिन सब प्यारे-प्यारे,
जब-जब गुस्साती है तब-तब और अजूबा लगती है।

ख़ुद मस्ती में रहती है चलते-फिरते मुस्काती है,
बात करो तो मुंह फेरे फिर भी मनसूबा लगती है।

ढल जाए तो चाहत की बहती धारा बन जाती है,
गर रूठ गई तो फिर वह रेतीली रूबा लगती है।

चांद अनोखा शरमा जाए उसकी हुस्न-अदाओं पे,
नाज़ुक इतनी है के वह तो हुस्ने-ख़ूबाँ लगती है।