तारो से भरी राहगुज़र ले के गई है 
ये सुब्ह चराग़ो का नगर ले के गई है 
तुम को तो पता होगा कि हमराह तुम्हीं थे 
दुनिया मिरे ख़्वाबो को किधर ले के गई है 
प्यासे थे तो पानी को पुकारा था हमीं ने 
नदी इधर आई है घर ले के गई है 
इक मंजिल-ए-बे -मक़्सद ओ बे-नाम की ख़्वाहिश 
काँटों की सवारी पे सफ़र ले के गई है 
बे-बाल-ओ-परी अब भी सर-ए-दश्त है महफ़ूज 
आँधी तो फ़क़त बर्ग ओ समर ले के गई है 
शायद कि अब आए तिरी क़़ुर्बत की नई फ़स्ल 
इस बार दूआ बाब-ए-असर ले के गई है 
चमकेगा अभी ज़ेवर-ए-शहज़ादी-ए-महताब
उस तक वो मिरे शब की ख़बर ले के गई है