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ताले और चाबियाँ / रजनी अनुरागी
Kavita Kosh से
ताले बहुत हैं
मगर चाबियाँ कहाँ हैं
जिनसे उन्हें खोला जा सके
पुरुष ने बनाए बहुत से ताले
औरत के लिए
और चाबियां छुपा दी
कितनी ही सदियां गुज़र गई हैं
औरत को चाबियां खोजते
और पुरुष को उस पर हंसते
मगर औरत भी कम नहीं है
जिस ताले की मिली नहीं उसे चाबी
वह खुद उसकी चाबी बन गई
और इस तरह पुरुष के हर ताले को
औरत खोलती आई है सदियों से
अपनी ही तरह से
लाज़िम है उस दिन का आना
जब दुनिया के हर ताले की चाबी
औरत के पास होगी
मगर तब नहीं रहेगी जरुरत
दुनिया में किसी भी ताले की