भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तिमिर-सहचर तारक / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
ये घोर तिमिर के चिर-सहचर !
खिलता जब उज्ज्वल नव-प्रभात,
- मिट जाती है जब मलिन रात,
- ये भी अपना डेरा लेकर चल देते मौन कहीं सत्वर !
मादक संध्या को देख निकट
- जब चंद्र निकलता अमर अमिट,
- ये भी आ जाते लुक-छिप कर जो लुप्त रहे नभ में दिन भर!
होता जिस दिन सघन अंधेरा
- अगणित तारों ने नभ घेरा,
- ये चाहा करते राका के मिटने का बुझने का अवसर !
ज्योति-अंधेरे का स्नेह-मिलन,
- बतलाता सुख-दुखमय जीवन,
- उत्थान-पतन औ' अश्रु-हास से मिल बनता जीवन सुखकर!