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तिमिर हरण का गीत / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

किसी हृदय में
कहीं नदी की लहर से
किसी सागर के जल में परस्पर रूप के साथ
दो क्षण जल की तरह धुले हुए
एक भोर की बेला में शताब्दी के सूर्य के पास
रहती है हमारे जीवन की हलचल
या शायद जीवन को ही सीखना चाहा था-
आँखों में एक दूसरा आकाश लिए।
हम लोग हँसे,
हम लोग खेले,
याद रह गयी घटनाओं के लिए कोई ग्लानि नहीं,
एक दिन प्यार करते गये।

फिर, वह सब रीति आज मृतक की आँख की तरह-
तारे आलोक की ओर देखते हैं-निरलोक।
हेमन्त के प्रान्तर में तारों की रोशनी
उसी रोशनी को खींचकर आज तक खेलता हूँ।

सूर्यलोक नहीं है-फिर भी-
सूर्यलोक मनोरम होगा, यह सोचकर प्रसन्न होता हूँ।
स्वतः विमर्श होकर कुलीन और साधारण
देखता है फिर भी उसी विषाद से
वही बहुत काली-काली छायाएँ
लंगरख़ाने के अन्न खाकर
मध्यवर्गीय लोगों की पीड़ा और हताशा का हिसाब-किताब
छोड़कर
नर्मदा पर झूलते ओवरब्रिज पर बैठकर
नर्मदा में उतरकर-
फुटपाथ से दूर निरुत्तर फुटपाथ में जाकर
नक्षत्र की ज्योत्स्ना में सोना या मरना जानते हैं।

ये लोग इस पथ पर
वे लोग उस पथ पर-फिर भी-
मध्यवर्गियों की दुनिया में
हम लोग वेदनाहीन-अन्तहीन वेदना के पथ पर।

कुछ नहीं है-तब भी पूरे दम से खेलता हूँ
सूर्यलोक के प्रज्ञामय लगने पर हँसता हूँ,
जीवित या मृत रमणी की तरह मैं अन्धकार में सोचता हुआ
महानगरी की मृगनाभि को प्यार करने लगा हूँ
तिमिरहरण के लिए अग्रसर होकर
हम लोग क्या तिमिर विलासी हैं?
नहीं हम लोग तिमिर-विनाशी होना चाहते हैं?
हाँ, हम लोग तिमिर विनाशी ही हैं।