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तिरहुतिया / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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152.

भइ! हे अदबुद कथल न जाई। सोतुख सपन मोहि देहु विलगाई॥
देखल दिगंबर अम्बर छाला। कर न कमंडल गर नहि माला॥
ठाढ ठढेश्वर भवन सरूपे। गुरु सिख संगति न छाँह न धूपे।
सून मँडल मठ दसम दुवारे। गुरु गम तँह मन बसल मारे॥
धरनि समुणि हिय गाव लचारी। जनम जनम जोगिया बलिहारी॥1॥

153.

हमर दुषन सखि! पिय गुन भारी। बहुत बिगारउँ लत सँवारी॥
करु न सेव सखि! पिय गुन भारी। बहुत बिगारउँ लेत सँवारी॥
करु न सेव सखि! कहल न मानो। मधुरि वचन मैं बोलहि न जानो॥
घर घरुवर मोरे किछु न सिराई। गात मइल अति वसन वसाई॥
पहुन भिछुक जन गर परिजाई। गुरु जन मोर मुख निरखि लजाई॥
धरनि येहन पिय पुन्यते पावै। कुलवोरनि कुलतरनि कहावै॥2॥

154.

माधव मोहिन आन अधारो।टेक॥
यहि भवसागर माँझे बूडत, धाय धरहु किन हारो॥
बाल कुमार, तरुन तरुनापाय, भयउ विषय विषभारो।
अब मन वच क्रम तव अवलंबन, करहु जे मनहि विचहे॥
आपुन कर्म कइल फल पावल, जो कछु लिखे लिलारो।
आन के गुन विसरावल तोकँह, तुमहि निवाहन हारो॥
वारहि बारके आवत जाते, अब नहि शक्ति हमारो।
करहु कृपा करुनानिधि केशव, धरनीदास पुकारो॥

155.

पिया मोर निर्मल वैरागी। हम वैरागिनि दर्शन लागी॥
छिन नहि रहत बनत गृह माहे। जनु जिय पौड उदधि अवगाहे॥
वालमु मोर रतन जेहि रंगे। सेहु रंग हमहु रँगब वहि सँगे॥
वाट वटोहिया तोहि हित भाई। जानै पिय गैल कहहु बुझाई॥
धरनी तिन धनि जिवन असारे। पियके गोहन तजि करु घरुआरे॥

156.

सत गुरु शब्द प्रसादे। विसरि गइल सब बाद-विवादे॥
कप-पुर पाटन भेद सुनीला। बिनु दीपक घर दियर लेसीला॥
बिनु कर कठिन केवाड़ छोड़ौला। बिनु नयनन कत चरित देखौला॥
आतम सुमिरन सेहु समुझौला। बिनु रसनै सुमिरत सच पौला॥
अजर अमर धर अधर लखौला। धरनि हरषि हिय हरि गुन गौला॥